Zeus’s Curse
زوس کی بد دعا
ज़ीउस की बद्दुआ
Riaz Akber
14 Dec 2025
کچھ ہی دیر پہلےان کی شادی کی پچاسویں سالگرہ کا ہنگامہ ختم ہوا تھا۔ بچوں اور بچوں کے بچوں کو رخصت کرنے کے بعد کی خاموشی میں ان دونوں نے ایک دوسرے کی طرف دیکھا۔
'بیت گئی'
'ہاں'
'وقت ہی نہیں ملا ۔۔۔ اپنے لئے'
'ہاں ۔۔۔۔ شاید اپنے اپنے لئے ملا ۔۔۔ مگر ہم دونوں کے لئے نہیں'
'کیا ہے یہ تنہائی؟ ہم ساتھ ساتھ جیتے رہے۔ مگر اکیلے۔'
'ہاں'
'کیوں؟!'
'معلوم نہیں۔ شاید دیوتائوں کو یہ پسند نہیں تھا۔ وہ ارسطو کی کہانی پڑھی ہے نا تم نے۔ شروع کے انسان کے دو چہرے تھے اور چار چار ہاتھ پائوں۔ مگر زوس دیوتا نے انہیں بیچ میں سے کاٹ دیا۔ زوس ہم انسانوں کو ختم نہیں کرنا چاہتا تھا مگر اسے یہ بھی قبول نہیں تھا کہ ہم بہت آگے نکل جائیں۔ سو اس نے ہمیں کمزور اور مسکین کر دیا۔ بس تبھی سے آدم اور حوا ایک دوسرے کی تلاش میں ہیں'
'۔۔۔۔ مگر ۔۔۔۔۔ ہنندوستان میں تو پاروتی اور شیوا کا میل ہو گیا تھا'
'ہاں ۔۔۔ مگر مشکل سے ۔۔۔۔ اور بڑی تپسیہ کے بعد۔ شاید ہمارے نصیب ایسے نہیں رہے ہونگے۔'
'ہونہہ ۔۔۔۔ نصیب۔ ساتھ رہے مگر اپنے اپنے کاموں میں۔ تم کہیں دورے پر ۔۔۔ میں کسی آفس میں۔ ہمارے دوست اور ہمارے مشغلے بھی الگ الگ رہے؛۔
' چھوڑو یار ۔۔۔۔ کام کی مجبوری تھی۔ آج ملن کے پچاسویں سال پر کیسی باتیں ہو رہی ہیں۔ بچے تو ہمارے دونوں کے اپنے ہیں نا۔ کیوں۔'
'شاباش ہے تمہاری سوچ پر۔ شکی کے شکی ہی رہے۔'
.
.
.
'اچھا یہ بتائو کہ ارسطو کی کہانی میں تین طرح کے دو چہروں والے انسان تھے۔ مرد اور مرد ، عورت اور عورت، مرد اور عورت'۔
'ہاں'
'ہاں۔ اب کہتےہو ہاں۔ یاد ہے جب ہماری بیٹی نے اپنی سہیلی ڈھونڈی تو کتنا ناراض ہوئے تھے۔ اسے گھر سے جانے کا کہہ دیا تھا اور بعد میں روتے رہے۔'
'باقی بچوں کی شادی کا فکر تھا'
'ہو گئی نا سب کی۔ مگر کس نے ہماری مرضی سے کی؟ اب سب کے بچے ہیں۔'
،ہاں۔ چھوڑو یار۔ آئو نا'۔
'مان جائو ۔۔۔ ان پچاس سالوں میں ہم دونوں نے بہت کوشش کی مگر آگے ۔۔۔ ایک دوسرے کے بدن سے آگے ۔۔۔۔ اندر کسی اتھاہ تک اتر نہیں سکے۔ شاید یہ ہماری مجبوری ہے، سب انسانوں کی مجبوری ۔۔۔ زوس کی بددعا۔'
'ہاں زوس کی بد دعا'۔
دوسری صبح سات بجے گھڑی کے الارم کو کسی نے بند نہیں کیا۔ وہ دونوں گھر پہ ہی نہیں تھے۔ اپنے اپنے بدن بستر پر چھوڑ کر وہ جھیل کے کنارے ملے اور قریب ہوتے ہوتے ایک دوسرے کے اندر سے گزر کر آگےنکل گئے۔ دو مخالف سمتوں میں کہر نے انہیں ڈھانپ لیا۔
ریاض اکبر
آسٹریلیا
'بیت گئی'
'ہاں'
'وقت ہی نہیں ملا ۔۔۔ اپنے لئے'
'ہاں ۔۔۔۔ شاید اپنے اپنے لئے ملا ۔۔۔ مگر ہم دونوں کے لئے نہیں'
'کیا ہے یہ تنہائی؟ ہم ساتھ ساتھ جیتے رہے۔ مگر اکیلے۔'
'ہاں'
'کیوں؟!'
'معلوم نہیں۔ شاید دیوتائوں کو یہ پسند نہیں تھا۔ وہ ارسطو کی کہانی پڑھی ہے نا تم نے۔ شروع کے انسان کے دو چہرے تھے اور چار چار ہاتھ پائوں۔ مگر زوس دیوتا نے انہیں بیچ میں سے کاٹ دیا۔ زوس ہم انسانوں کو ختم نہیں کرنا چاہتا تھا مگر اسے یہ بھی قبول نہیں تھا کہ ہم بہت آگے نکل جائیں۔ سو اس نے ہمیں کمزور اور مسکین کر دیا۔ بس تبھی سے آدم اور حوا ایک دوسرے کی تلاش میں ہیں'
'۔۔۔۔ مگر ۔۔۔۔۔ ہنندوستان میں تو پاروتی اور شیوا کا میل ہو گیا تھا'
'ہاں ۔۔۔ مگر مشکل سے ۔۔۔۔ اور بڑی تپسیہ کے بعد۔ شاید ہمارے نصیب ایسے نہیں رہے ہونگے۔'
'ہونہہ ۔۔۔۔ نصیب۔ ساتھ رہے مگر اپنے اپنے کاموں میں۔ تم کہیں دورے پر ۔۔۔ میں کسی آفس میں۔ ہمارے دوست اور ہمارے مشغلے بھی الگ الگ رہے؛۔
' چھوڑو یار ۔۔۔۔ کام کی مجبوری تھی۔ آج ملن کے پچاسویں سال پر کیسی باتیں ہو رہی ہیں۔ بچے تو ہمارے دونوں کے اپنے ہیں نا۔ کیوں۔'
'شاباش ہے تمہاری سوچ پر۔ شکی کے شکی ہی رہے۔'
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'اچھا یہ بتائو کہ ارسطو کی کہانی میں تین طرح کے دو چہروں والے انسان تھے۔ مرد اور مرد ، عورت اور عورت، مرد اور عورت'۔
'ہاں'
'ہاں۔ اب کہتےہو ہاں۔ یاد ہے جب ہماری بیٹی نے اپنی سہیلی ڈھونڈی تو کتنا ناراض ہوئے تھے۔ اسے گھر سے جانے کا کہہ دیا تھا اور بعد میں روتے رہے۔'
'باقی بچوں کی شادی کا فکر تھا'
'ہو گئی نا سب کی۔ مگر کس نے ہماری مرضی سے کی؟ اب سب کے بچے ہیں۔'
،ہاں۔ چھوڑو یار۔ آئو نا'۔
'مان جائو ۔۔۔ ان پچاس سالوں میں ہم دونوں نے بہت کوشش کی مگر آگے ۔۔۔ ایک دوسرے کے بدن سے آگے ۔۔۔۔ اندر کسی اتھاہ تک اتر نہیں سکے۔ شاید یہ ہماری مجبوری ہے، سب انسانوں کی مجبوری ۔۔۔ زوس کی بددعا۔'
'ہاں زوس کی بد دعا'۔
دوسری صبح سات بجے گھڑی کے الارم کو کسی نے بند نہیں کیا۔ وہ دونوں گھر پہ ہی نہیں تھے۔ اپنے اپنے بدن بستر پر چھوڑ کر وہ جھیل کے کنارے ملے اور قریب ہوتے ہوتے ایک دوسرے کے اندر سے گزر کر آگےنکل گئے۔ دو مخالف سمتوں میں کہر نے انہیں ڈھانپ لیا۔
ریاض اکبر
آسٹریلیا
कुछ ही देर पहले उनकी शादी की पचासवीं सालगिरह का हंगामा ख़त्म हुआ था। बच्चों और बच्चों के बच्चों को विदा करने के बाद की ख़ामोशी में वे दोनों एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे।
‘बीते गए।’
‘हाँ।’
‘समय ही नहीं मिला… अपने लिए।’
‘हाँ… शायद अपने–अपने लिए मिला… मगर हम दोनों के लिए नहीं।’
‘क्या है यह तन्हाई? हम साथ-साथ जीते रहे, मगर अकेले।’
‘हाँ।’
‘क्यों?’
‘मालूम नहीं। शायद देवताओं को यह पसंद नहीं था। वह अरस्तू की कहानी पढ़ी है न तुमने? शुरू के इंसान दो चेहरे वाले थे और चार–चार हाथ–पाँव। मगर ज़ीउस देवता ने उन्हें बीच से काट दिया। ज़ीउस हमें मिटाना तो नहीं चाहता था, मगर यह भी नहीं चाहता था कि हम बहुत आगे निकल जाएँ। सो उसने हमें कमज़ोर और मसकीन कर दिया। बस तभी से आदम और हव्वा एक-दूसरे की तलाश में हैं।’
‘… मगर… हिंदुस्तान में तो पार्वती और शिव का मेल हो गया था।’
‘हाँ… मगर बड़ी मुश्किल से… और बहुत तपस्या के बाद। शायद हमारे नसीब वैसे नहीं रहे होंगे।’
‘हुंह… नसीब! साथ रहे मगर अपने-अपने कामों में। तुम कहीं दौरे पर… मैं किसी दफ़्तर में। हमारे दोस्त और हमारे शौक भी अलग-अलग रहे।’
‘छोड़ो यार… काम की मजबूरी थी। आज मिलन के पचास वर्ष पर कैसी बातें कर रही हो। बच्चे तो हमारे दोनों के अपने हैं न? क्यों?’
‘वाह! आपकी सोच पर तो शाबाश देनी पड़े। शक़ी के शक़ी ही रहे।’
.
.
.
'अच्छा बताओ — अरस्तू की कहानी में तीन तरह के दो-चेहरों वाले इंसान थे: पुरुष और पुरुष, स्त्री और स्त्री, और पुरुष और स्त्री।’
‘हाँ।’
‘हाँ… अब कहते हो! याद है जब हमारी बेटी ने अपनी सहेली ढूँढ ली थी तो कितना नाराज़ हुए थे? उसे घर से जाने को कह दिया था… और बाद में ख़ुद रोते रहे।’
‘बाक़ी बच्चों की शादी का फ़िक्र था।’
‘हो गई न सबकी? मगर किसने हमारी मर्ज़ी से की? अब सबके अपने बच्चे हैं।’
‘हाँ… छोड़ो यार। आओ न।’
‘मान जाओ… इन पचास सालों में हम दोनों ने बहुत कोशिश की, मगर आगे… एक-दूसरे के बदन से आगे… भीतर किसी अथाह गहराई तक उतर नहीं सके। शायद यही हमारी मजबूरी है — सब इंसानों की मजबूरी… ज़ीउस की बद्दुआ।’
‘हाँ… ज़ीउस की बद्दुआ।’
दूसरी सुबह सात बजे घड़ी का अलार्म किसी ने बंद नहीं किया। वे दोनों घर पर थे ही नहीं।
अपने-अपने बदन बिस्तर पर छोड़कर वे झील के किनारे मिले — और पास आते-आते एक-दूसरे के अंदर से गुज़रकर आगे निकल गए।
दो विपरीत दिशाओं में फैलती धुंध ने उन्हें ढाँप लिया।
रियाज़ अकबर
ऑस्ट्रेलिया
‘बीते गए।’
‘हाँ।’
‘समय ही नहीं मिला… अपने लिए।’
‘हाँ… शायद अपने–अपने लिए मिला… मगर हम दोनों के लिए नहीं।’
‘क्या है यह तन्हाई? हम साथ-साथ जीते रहे, मगर अकेले।’
‘हाँ।’
‘क्यों?’
‘मालूम नहीं। शायद देवताओं को यह पसंद नहीं था। वह अरस्तू की कहानी पढ़ी है न तुमने? शुरू के इंसान दो चेहरे वाले थे और चार–चार हाथ–पाँव। मगर ज़ीउस देवता ने उन्हें बीच से काट दिया। ज़ीउस हमें मिटाना तो नहीं चाहता था, मगर यह भी नहीं चाहता था कि हम बहुत आगे निकल जाएँ। सो उसने हमें कमज़ोर और मसकीन कर दिया। बस तभी से आदम और हव्वा एक-दूसरे की तलाश में हैं।’
‘… मगर… हिंदुस्तान में तो पार्वती और शिव का मेल हो गया था।’
‘हाँ… मगर बड़ी मुश्किल से… और बहुत तपस्या के बाद। शायद हमारे नसीब वैसे नहीं रहे होंगे।’
‘हुंह… नसीब! साथ रहे मगर अपने-अपने कामों में। तुम कहीं दौरे पर… मैं किसी दफ़्तर में। हमारे दोस्त और हमारे शौक भी अलग-अलग रहे।’
‘छोड़ो यार… काम की मजबूरी थी। आज मिलन के पचास वर्ष पर कैसी बातें कर रही हो। बच्चे तो हमारे दोनों के अपने हैं न? क्यों?’
‘वाह! आपकी सोच पर तो शाबाश देनी पड़े। शक़ी के शक़ी ही रहे।’
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'अच्छा बताओ — अरस्तू की कहानी में तीन तरह के दो-चेहरों वाले इंसान थे: पुरुष और पुरुष, स्त्री और स्त्री, और पुरुष और स्त्री।’
‘हाँ।’
‘हाँ… अब कहते हो! याद है जब हमारी बेटी ने अपनी सहेली ढूँढ ली थी तो कितना नाराज़ हुए थे? उसे घर से जाने को कह दिया था… और बाद में ख़ुद रोते रहे।’
‘बाक़ी बच्चों की शादी का फ़िक्र था।’
‘हो गई न सबकी? मगर किसने हमारी मर्ज़ी से की? अब सबके अपने बच्चे हैं।’
‘हाँ… छोड़ो यार। आओ न।’
‘मान जाओ… इन पचास सालों में हम दोनों ने बहुत कोशिश की, मगर आगे… एक-दूसरे के बदन से आगे… भीतर किसी अथाह गहराई तक उतर नहीं सके। शायद यही हमारी मजबूरी है — सब इंसानों की मजबूरी… ज़ीउस की बद्दुआ।’
‘हाँ… ज़ीउस की बद्दुआ।’
दूसरी सुबह सात बजे घड़ी का अलार्म किसी ने बंद नहीं किया। वे दोनों घर पर थे ही नहीं।
अपने-अपने बदन बिस्तर पर छोड़कर वे झील के किनारे मिले — और पास आते-आते एक-दूसरे के अंदर से गुज़रकर आगे निकल गए।
दो विपरीत दिशाओं में फैलती धुंध ने उन्हें ढाँप लिया।
रियाज़ अकबर
ऑस्ट्रेलिया
Just a short while ago, the noise of their fiftieth anniversary celebration had died down. After the children — and their children — had left, the two of them sat in the quiet and looked at each other.
“It’s gone by.”
“Yes.”
“We never found time… for ourselves.”
“Yes… perhaps we found time for ourselves as individuals… but not for us.”
“What is this loneliness? We lived side by side, yet alone.”
“Yes.”
“Why?”
“I don’t know. Perhaps the gods never liked it. You remember Aristotle’s story, don’t you? In the beginning, humans had two faces and four arms and four legs. But Zeus cut them in half. He didn’t want to destroy us — only weaken us, so we wouldn’t surpass the gods. Since then, Adam and Eve have been searching for each other.”
“…But… in India, Parvati and Shiva did unite.”
“Yes… but only after great struggle, after deep tapasya. Perhaps our destinies were not like theirs.”
“Huh… destiny. We lived together, yet each in our own world. You forever on some tour, I forever in an office. Even our friends and our hobbies grew in different directions.”
“Oh come on… it was work. Why talk this way on our fiftieth anniversary? Our children are ours, aren’t they?”
“Bravo — what thinking! Suspicion never left you."
.
.
.
"Tell me something — in Aristotle’s tale there were three kinds of double-faced humans: man with man, woman with woman, and man with woman.”
“Yes.”
“Yes — now you say yes. Do you remember when our daughter found her companion girl? How angry you became? You told her to leave the house… and later sat crying alone.”
“I was worried about the younger children’s marriages.”
“Well, all of them are married now. But who married with our approval? They all chose for themselves., and now have children.”
“Yes… let it go. Come here.”
“Listen… in fifty years we tried, we truly tried. But beyond… beyond each other’s bodies… we never descended into the deep place within. Maybe that is our limitation. Humanity’s limitation — Zeus’s curse.”
“Yes… Zeus’s curse.”
The next morning, at seven, no one turned off the alarm. They were not in the house at all. Leaving their bodies resting on the bed, they met by the lake. And as they moved closer, they passed through one another and went on.
Mist rising in two opposite directions wrapped them gently out of sight.
Riaz Akber
Australia
“It’s gone by.”
“Yes.”
“We never found time… for ourselves.”
“Yes… perhaps we found time for ourselves as individuals… but not for us.”
“What is this loneliness? We lived side by side, yet alone.”
“Yes.”
“Why?”
“I don’t know. Perhaps the gods never liked it. You remember Aristotle’s story, don’t you? In the beginning, humans had two faces and four arms and four legs. But Zeus cut them in half. He didn’t want to destroy us — only weaken us, so we wouldn’t surpass the gods. Since then, Adam and Eve have been searching for each other.”
“…But… in India, Parvati and Shiva did unite.”
“Yes… but only after great struggle, after deep tapasya. Perhaps our destinies were not like theirs.”
“Huh… destiny. We lived together, yet each in our own world. You forever on some tour, I forever in an office. Even our friends and our hobbies grew in different directions.”
“Oh come on… it was work. Why talk this way on our fiftieth anniversary? Our children are ours, aren’t they?”
“Bravo — what thinking! Suspicion never left you."
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"Tell me something — in Aristotle’s tale there were three kinds of double-faced humans: man with man, woman with woman, and man with woman.”
“Yes.”
“Yes — now you say yes. Do you remember when our daughter found her companion girl? How angry you became? You told her to leave the house… and later sat crying alone.”
“I was worried about the younger children’s marriages.”
“Well, all of them are married now. But who married with our approval? They all chose for themselves., and now have children.”
“Yes… let it go. Come here.”
“Listen… in fifty years we tried, we truly tried. But beyond… beyond each other’s bodies… we never descended into the deep place within. Maybe that is our limitation. Humanity’s limitation — Zeus’s curse.”
“Yes… Zeus’s curse.”
The next morning, at seven, no one turned off the alarm. They were not in the house at all. Leaving their bodies resting on the bed, they met by the lake. And as they moved closer, they passed through one another and went on.
Mist rising in two opposite directions wrapped them gently out of sight.
Riaz Akber
Australia